पहाड़ के कण-कण में साहित्य का तत्त्व हमेशा से विद्यमान रहा है। इसी मिट्टी में कई साहित्यकार हुए हैं, जिन्होंने इस माटी के मोह को बरकरार रखा है। इसी माटी की कवयित्री प्रेमा गड़कोटी जी भी हैं, जो पेशे से शिक्षिका हैं। उनकी कविताएं, इस पहाड़ की धमनियों की भांति अंचल-अंचल में बहती रहती हैं।
इसी क्रम में उनकी कविता आपके लिए।
*जन्मभूमि की माया*
जन्मभूमि से प्यारा भी
कोई हो सकता है
सारी दुनिया में
मैं
नहीं मान सकती
इसकी मिट्टी में जो खुशबू है
वो किसी इत्र में नहीं
यहांँ पंछियों की बोली में
जो संगीत है
वो किसी साज में नहीं
इसके प्रेम का
प्रेमी मेरा ये मन
सारी उम्र
यहीं रह सकता है
और जो इसकी हरी भरी गोद में
चैन नहीं पा सके
मैं उसे इसका रहवासी भी
नहीं मान सकती।
प्रेमा गड़कोटी