उत्तराखंड का लोक पर्व हरेला पर्यावरण को समर्पित, जाने इसके बारे में

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कुमांऊ में ऋतुत्सवों में हरेले का स्थान सर्वोपरि माना जाता है।यह सौरमास श्रावण अर्थात् कर्क संक्रान्ति के प्रथम दिन मनाया जाता है,किन्तु इसका शुभारम्भ इससे ग्यारह अथवा नौ दिन पूर्व ही हो जाता है जिस दिन इसे बोया जाता है। इसके लिए इससे पूर्व नौ से ग्यारह दिनों के बीच का ऐसा शुभ दिन नियत किया जाता है जो कि ज्योतिर्गणना के अनुसार भद्रादि दोष रहित हो। उस दिन घर की मुखिया महिलाएं शुद्ध स्थान से मिट्टी खोदकर लाती हैं तथा उसे सुखाकर छान लेती हैं। फिर मालू या तिमिल( गूलर जातीय वनस्पति) के बड़े पत्तों के दोने बनाकर उनमें अथवा निंगाल की बनी छोटी-छोटी टोकरियों में,कहीं काष्ठ की पट्टियों में भी,इस मिट्टी को भरकर उसमें वर्षाकाल में बोये जाने वाले पंच या सप्त धान्यों यथा धान,मकई,माष(उड़द),गहत
(कुल्थ),तिल, भट्ट आदि को मिश्रित करके इनमें बोया जाता है ।
इन धान्यों को बोने के पीछे सम्भवतः मूल उद्देश्य यह देखना होगा की प्रस्तुत वर्ष में इन धान्यों के अंकुरण की स्थिति कैसी रहेगी। बोने के उपरांत इन्हें जलकणों से सिंचित करके एक डाले(बाँस या बेंत के बने बड़े से टोकरे) में रखकर घर के अन्दर ऐसे स्थान में रख दिया जाता है जो कि सूर्य किरणों की पहुंच से बाहर हो। फलतः इनमें दो तीन दिनों में अंकुरण प्रारंभ हो जाता है। सूर्य की किरणों का स्पर्श न होने से ये अंकुर पीले होकर बढते हैं। उल्लेख है कि इन धान्यों को बोने का उत्तरदायित्व यदि मातृशक्ति का होता है तो इन्हें सिंचित करने का उत्तरदायित्व कुमारी कन्याओं का।प्रत्येक परिवार में हरेले के पुटकों(दोनों) की संख्या का निर्धारण घर के सदस्यों तथा उस दिन पूजे जाने वाले देवी- देवताओं की संख्या के आधार पर किया जाता है। अर्थात् प्रत्येक के निमित्त एक एक ‘दूनी’ (द्रोण पुटक) बोई जाती है। इस संदर्भ में एक विशेष बात जिसका विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है वह यह की कुटुम्ब परम्परा में एक बार निर्धारित द्रोणपुटों की संख्या को आवश्यकतानुसार बढा़या तो जा सकता है पर बढा़ देने के उपरांत उन्हें घटाया नहीं जा सकता है।ऐसा करना अशुभ सूचक माना जाता है।


हरेला काटने की पूर्व संध्या को पर्णकुटों में उगे हुए इन अंकुरणों की बांस की तीलियों से गुडा़ई(निराई) करके उन्हें उनके मध्य रोप दिया जाता है तथा पुटों को कलावे के कच्चे धागे से लपेटकर बांध दिया जाता है। इसके उपरान्त उन पर गन्धाक्षत चढा़कर उनका नीराजन किया जाता है। कर्मकाण्डी ब्राह्मण वर्ग के द्वारा ‘हरिकालिका’ के रूप में ‘हरियाला’ का संस्कृतिकरण करके इसे शिव-पार्वती के विवाह की जयंती के रूप में प्रचारित करके इस विशुद्ध ऋतुत्सव के साथ शिव-पार्वती तथा उनके परिवार के सदस्यों के पूजन को भी जोड़ दिया जाता है।
इस संदर्भ में उल्लेख है कि संक्रान्ति पर्व का जो रुप एवं सांस्कृतिक महत्व कुमाऊंनी लोक जीवन में देखा जाता है वहीं गढ़वाल में नहीं।यहां पर अधिकांश लोग न तो इसे एक कृषकीय पर्व के रूप में मनाते हैं और न घरों में इसे उस रूप में उगाते हैं जैसे कि कुमांऊ में।जो लोग हरियाली उगाते हैं वे इसे अपने घरों में नहीं अपितु अपने इष्टदेव के मंदिर के सामने मिट्टी डालकर उगाया जाता है। और इसमें वहां भी सप्तधान्यों को नहीं,केवल जौं को बोया जाता है। इसे बोने का कार्य भी केवल पुरूष कर सकते हैं वह भी वे पुरुष जिनका यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका हो। वस्तुतः यहां पर श्रावण मास की सौर संक्रान्ति को मनाये जाने वाले हरियाले की अपेक्षा आश्विन और चैत्र की नवरात्रियों में इष्ट देवता के देवस्थल में बोयी जाने वाली हरियाली के रूप में मनाया जाता है।


इसके अतिरिक्त यह भी कि हरियाली का यह पर्व एक संक्रान्ति पर्व के रूप में नहीं,अपितु “हरियाली देवी” की पूजा के रूप में मनाया जाता है। चमोली में स्थानीय लोग गोचर से लगभग 5-6 किमी. पर स्थित हरियाली देवी के मंदिर में अपने घरों से पवित्र हरियाली के निमित्त बीज( जौं) लाकर वहीं पर इसे उगाते हैं और पूजन के बाद स्वयं धारण करते हैं।
संक्रान्ति के दिन घर के सभी लोग प्रातः काल उठकर स्नान करते हैं और प्रयत्न किया जाता है कि शीघ्र हरियाली कटने की रस्म पूरी कर ली जाए,क्योंकि ऐसे अवसर पर बिरादरी में कोई अशुभ घटना घटित हो जाने पर हरियाला नहीं काटा जाता है और एक बार मृत्यु आदि के कारण हरियाला रुक जाने पर यह फिर तब तक चालू नहीं हो सकता जब की पुनः इसी दिन उस परिवार में किसी शिशु का जन्म नहीं हो जाता।इसलिए गृहणियां प्रातः काल ही स्नान से निवृत्त होने के उपरांत तुरन्त ही पूडी़,बडे़ व पुए आदि तलने में लग जाती हैं। किसी भी त्यौहार के अवसर पर बडे़,कचौडी आदि के रुप में उड़द (माष) का प्रयोग एक अपरिहार्य अंग होता है। तदनन्तर एक चौडे़ पात्र में इन सभी पक्वानों को रखकर तथा हरियाले के पुटकों में से एक को उनके साथ रखकर एक छुरी से,जिस पर अक्षत-पिठ्या लगाया जाता है, उसे काटा जाता है। यथा सम्भव ज्येष्ठायु क्रम से,घर के सभी सदस्यों के द्वारा बारी-बारी उसे काटा जाता है,इसके बाद वे सभी ज्येष्ठायु क्रम से कटे हुए हरियाले के पीतांकुरों को अपने दोनों हाथों में लेकर सुख,सम्पत्ति,आरोग्य आदि की कामना की अभिव्यंजक नियत शब्दावली के साथ एक साथ ही परस्पर एक दूसरे के चरणों से आरम्भ करके घुटनों तथा कन्धों का स्पर्श करते हुए सिर के ऊपर ले जाकर रखते हैं। यह प्रक्रिया दो बार की जाती है। इस अवसर पर उच्चरित की जाने वाली मंगल कामानात्मक शब्दावली का रूप कुछ इस प्रकार होता है “आ (या लाग) हर्याली,आ(लाग) बग्वाली, आ/लाग देश, आ/लाग उतरैणी तू औनी/आनी रयै, जानी रये या यो दिन यो बार ऊने/औने रून/रौंन,मैं पैरूने रौं, म्यर/म्येरि( पहनाये जाने वाले व्यक्ति के साथ पहनाने वाले व्यक्ति का बन्धुत्ववाची शब्द माता, पिता, भाई,बहन,बेटी,बेटा जो भी बनता हो उसका उच्चारण कर) पेरने रौ, दूब जस फैली जौ, बुक जस फुलि जौ, धरती जस चाकव,अगास जस/कतुक उच्च है जो, स्यू जस तराण, श्याव कसि बुद्धि है जो,जब तक हिमालय में ह्यू रौल, गंग-जमन पणि रौल तब तक बचि रये/रौ,जी रये,जागि रये आदि।
इस पर्व पर वृक्षारोपण को विशेष महत्व दिया जाता है। विश्वास किया जाता है कि इस दिन आरोपित पौधा तो क्या किसी भी वृक्ष या लता की टहनी भी रोपे जाने पर जड़ पकड़ लेती हैं और देखा गया है कि ऐसा होता भी है।वस्तुतः यह पर्यावरण के प्रति जागरूक जनता का वृक्षारोपण के द्वारा वनस्पति की अभिवृद्धि का अन्यतम लक्ष्य ही रहा होगा।

 

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