“पिता” – उभरते हुए युवा कवि धीरज तिवारी की रचना

मैं आदतों से यूँ अच्छा हूँ या बुरा, इसका तो पता नहीं लगता है।
ख़ुशी होती है जो कोई कहता है कि तू अपने पापा सा दिखता है।
क्यूँकि…
उनके अपने अरमानो को मैंने अपनो के लिए टूटते देखा है,
मैंने अपने पिता को बहुत बार नम आँखों से हँसते देखा है ।
दर्द से भरे हुए उन कंधों में कहीं मैंने अपना बचपन देखा है,
मेरी उँगली को बचपन में उनके हाथों में यूँ ही थामे देखा है।।
मैंने…
बचपन में डरने पर उनकी वो जादू वाली टाफी को देखा है,
साइकिल को पीछे से थामे उस चेहरे की हँसी को देखा है।
मैंने अपने दुःख में, अपने पिता की आँखों को रोते देखा है,
मेरी ज़िंदगी के हर निर्णय पर उनकी मौजूदगी को देखा है।।
मैंने…
उस ईमानदारी के आगे हज़ार ख़्वाहिशों को गिरते देखा है,
मेरी हर एक जीत पर यूँ अपने पिता को गर्व करते देखा है।
हाँ बड़े फ़ैसलों में दिल से पहले आँखों में डर दिखता है मेरे,
तो जीत के लिए पापा को “मेरा बेटा शेर है” कहते देखा है।।
मैंने…
उन्हें परेशानियों को दिल में रखे बनावटी हँसी हँसते देखा है,
हमारी ख़्वाहिशों व अरमानों के लिए उन्हें ख़ुश होते देखा है।
यूँ इन हज़ारों हज़ार ज़िम्मेदारियों से घिरे उस सच्चे दिल में,
मैंने कहीं न कहीं अपने ज़िम्मेदार पापा में वो बचपना देखा है।।
धीरज तिवारी

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