जब कभी धरती पर
बदलाव आये,
विद्वानों ने गढ़े नए सिद्धांत,
दिए नए-नए नाम,
और विद्यार्थियों के लिए सिलेबस में जोड़े
राष्ट्रवाद,उदारवाद,पूँजीवाद,
विकासवाद जैसे कई गूढ़ “वाद”
किन्तु फ़िर भी सबसे सटीक
कोई गढ़ सकता आज के हालात,
वो मेरी ‘आमा’
सरलतम अर्थों में बतला देती,
बिना किसी “वाद” को बीच में लाये,
पोथी !
कैसी कैसी देखी
पर नहीं देखी ऐसी ‘अणकस्सी’ बीमारी
बखत भी क्यों न बदलता
क्यों रहता एकनस्स,
जब मैंसों ने बदल लिए ढंग,
हो गए निखद्दर,अलच्छणि, अधर्मी
और उनके हाथ कुकर्मी,
रह गए जबान में
बस गाली और कुबात
हरा गए,
द्याप्त, परमेश्वरों के बचन-आंखर
शांति, पिरेम, लाड़ सब खतम
बच गयी बस
रीस, लड़ैं, मार-काट, खुन्योव,
अपनी भूख-तीस के लिए
क्याप-क्याप हाल रहे मूख में,
छिः !
सुद्दै राकस,जानवर हो रखे !
प्रकृति ही केवल नहीं मांगती बदलाव
पोथी !
तुमको भी करने होंगे
टैम बिटैम,
सुदारनी पड़ेगी ज्यून,
छोड़ने होंगे कुबाट, कुकरम
करनी पड़ेगी फिर
जानवर से मैंस बनने,
चौखुटि से द्विखुटि बनने की जुगत
साल, सदी, सहस्राब्दी ।
– आस्था भट्ट