अरे ओह इंसान….!
जल, जंगल, जमीन तूने ही सब लूट लिए
क्या-क्या सोचा था प्रकृति ने तेरे लिए
इस स्नेह का तूने कैसा सिला दिया है,
उसकी असमत को ही तूने नोंच लिया है
अपने ही सीने में तूने छूरा घोंप डाला है,
आस्तीन में फिर कई सांपों को तूने पाला है।
क्या सोचा कभी उस हरे जंगल के बारे में?
यूँ मन में चल रहे इस दंगल के बारे में,
क्या सोचा कभी नदी-नालों के बारे में,
इसे देख चलते ख़ुद के ख़यालों के बारे में?
जान बचाने आएगा, तू इसी धरा की गोद में,
माता के जैसे पाला है तुझे अपनी ही कोख में
वक़्त है संभल जा, मत कर धरा से खिलवाड़
गर ठनका उसका माथा तो नहीं बचेगा यह संसार।
दीप प्रकाश ‘ माहीं ‘