गिरीश तिवारी गिर्दा के जन्मदिन के अवसर पर जाने उनके बारे मे।

उनका जन्म 9 सितंबर, 1945 को अल्मोड़ा के ज्योली हवालबाग गांव में हंसादत्त तिवाडी और जीवंती तिवाडी के घर हुआ था। वह आजीवन जन संघर्षों से जुड़े रहे और अपनी कविताओं में जन पीड़ा को सशक्त अभिव्यक्ति दी। उत्तराखंड के जनकवि गिरीश चंद्र तिवाडी ‘गिर्दा’ का 22 अगस्त 2010 सुबह हल्द्वानी में देहांत हो गया। वह काफी समय से बीमार चल रहे थे। उनकी अंत्येष्टि 23 अगस्त 2010 सुबह पाईन्स, नैनीताल में सम्पन्न हुई।
एक और परिचय
गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ (Girish Tewari ‘Girda’)
(माताः स्व. जीवंती देवी, पिताः स्व. हन्सादत्त तिवारी)
जन्मतिथि : 9 सितम्बर 1945
जन्म स्थान : ज्योली (तल्ला स्यूनरा)
पैतृक गाँव : ज्योली जिला : अल्मोड़ा
वैवाहिक स्थिति : विवाहित बच्चे : 2 पुत्र
शिक्षा : हाईस्कूल- राजकीय इंटर कालेज अल्मोड़ा
इंटर– एशडेल स्कूल, नैनीताल (व्यक्तिगत)
जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ः 1966-67 में पूरनपुर में लखीमपुर खीरी के जनपक्षीय रुझान वाले कार्यकर्ताओं से मुलाकात।
प्रमुख उपलब्धियां : आजीविका चलाने के लिए क्लर्क से लेकर वर्कचार्जी तक का काम करना पड़ा। फिर संस्कृति और सृजन के संयोग ने कुछ अलग करने की लालसा पैदा की। अभिलाषा पूरी हुई जब हिमालय और पर्वतीय क्षेत्र की लोक संस्कृति से सम्बद्ध कुछ करने का अवसर मिला।
प्रमुख नाटक, जो निर्देशित किये- ‘अन्धायुग’, ‘अंधेरी नगरी’, ‘थैंक्यू मिस्टर ग्लाड’, ‘भारत दुर्दशा’। ‘नगाड़े खामोश हैं’ तथा ‘धनुष यज्ञ’ नाटकों का लेखन किया। कुमाउँनी-हिन्दी की ढेर सारी रचनाएँ लिखीं ।
गिर्दा ‘शिखरों के स्वर’ (1969), ‘हमारी कविता के आँखर’ (1978) के सह लेखक तथा ‘रंग डारि दियो हो अलबेलिन में’ (1999) के संपादक हैं तथा ‘उत्तराखण्ड काव्य’ (2002) के रचनाकार हैं। ‘झूसिया दमाई’ पर उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ एक अत्यन्त महत्वपूर्ण संकलन-अध्ययन किया है। उत्तराखण्ड के कतिपय आन्दोलनों में हिस्सेदारी की। कुछेक बार गिरफ्तारी भी हुई।
राष्ट्रीय पर्व

आज राष्ट्रीय पर्व है
हमको गर्व है
कि हमने आजादी के
इतने वर्ष गुजार दिए हैं
सब के सन्मुख
हाथ – पांव पसार दिए हैं ।

प्रगति पंथ में , प्रगति वाद में ,
जो सीमित बस मंच तलक मंचीय राज में
हम भी आगे भाग रहे हैं
यानी अब भी
सोते – सोते जाग रहे हैं ।

और जागरण की ही रटन लगाये
घर – घर अलख जगाते
भीख मांगते आये
अब भी मांग रहे हैं ।

यों उद्देश्य हमारा
लाना भू पर कल्पित स्वर्ग है

कब पाएंगे मंजिल देखो
आस लगाना फर्ज है
दुनियां भर का कर्ज है
लेकिन फिर भी गर्व है
आज राष्ट्रीय पर्व है ।

गिरीश तिवारी ” गिर्दा “
“पहाड़ “द्वारा प्रकाशित ” जैंता एक दिन तो आलो ” से ।
( प्रसिद्ध जन कवि स्व .” गिर्दा ” की यह रचना आज से करीब 45 साल पहले यानी 1967-68 के आसपास की है।)

गिरीश चंद्र तिवाड़ी ‘ गिर्दा ‘ की जयंती के अवसर पर उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि और डी’शैडो परफार्मिंग आर्ट्स अकादमी अल्मोड़ा की टीम ने गिर्दा की लिखी कविता “हरै गे कोसि” को संगीतमय तरीके से प्रस्तुत किया है।

https://youtu.be/mdqEt_WceY4