“मैं लिखता हूं” – राजीव पांडे की स्वरचित कविता

सूर्य की पहुंच से भी दूर
सागर की गहराई में अति विमूढ़
मै स्वयं से बोलने की कोशिश करता हूं
हां हां मैं लिखता हूं।
प्रतिदिन हो रहे अत्याचार पर
अव्यवस्था और व्यभिचार पर
कलम को धार देने की कोशिश करता हूं
हां हां मैं लिखता हूं।
दबी आवाज़ का सारथी बनकर
लेखनी को तलवार समझकर
सच को सच कहने की जुर्रत रखता हूं
हां हां मैं लिखता हूं।
कपोलकल्पित भावों का चित्र बनाकर
निज मुख का उद्भास दिखाकर
शब्दों को आईने का प्रतिरूप देता हूं
हां हां मैं लिखता हूं।
स्वयं को अन्याय के विरुद्ध खड़ा कर
विद्रोहियों का समाज बनाकर
न कभी थकता न कभी रुकता हूं
हां हां मैं लिखता हूं।
लोक वैभव और संपदा पर
सांसारिक प्रपंचों की लालसा पर
न किसी से मित्रता न रखता रिपुता हूं
हां हां मैं लिखता हूं।
रचना जो मेरा कर्म है
भाव जो मेरा मर्म है
मैं रचनाकार हूं बस मन की करता हूं
हां हां मैं भी लिखता हूं।
राजीव पांडे