मैं हूँ! पोस्ट ऑफिस का डिब्बा,
मुझे जाने कैसे सब भूल गए।
मैंने देखी हैं सदियां कितनी,
मुझे दिल से लगाना भूल गए।
सदियों की दिल-से -दिल की
बातें अब नहीं होती हैं।
जो पथराई आंखें रहती थीं
वो भी अब कुछ नहीं कहती हैं
ईमेल-मोबाइल जमानाआया
क्यों मुझको जाना भूल गए।। मैं हूँ..
मुझे याद है वो दिन भी जब,
काकी की चिट्ठी में आंसू होते थे।
मुझे याद है वो दिन ऐसा भी,
आये न चिट्ठी तो आमा रोती थी।
गांव-गधेरे, नौले-धारे भी सब
आमा के खत में गुँथे होते थे।
घुघुती की घूर-घूर होती थी तब
न्योली भी धाल लगाती थी।
अब ईमेल जमाना क्या आया रे
मुझपर भरोसा जताना भूल गए।। मैं हूँ..
जब बात दिल की दिल से खत में
संध्या में घंटो घंटों हम लिखते थे।
फौजी भाई तू देश के लिए लड़ना
जब अग्रज भाई उसमें लिखते थे।
जब बाखली के नन्हे मुन्नों को हम
ठुल बौज्यू के किस्से सुनाते थे,
रात-रात भर हम बाखली में
चांद-सितारों के गाने गाते थे।
न जाने भाई-भाई में दूरी क्यों,
अब वो लड़ने को उतारु हो गए।
मोबाइल क्या आया ऐसा अब
मुझपर भाव लुटाना भूल गए। मैं पोस्ट..
मैं, वही पोस्ट ऑफिस का डब्बा,
तिराहे पर आज भी टंगता हूँ।
मैं बॉक्स आज भी जंक लगा हूँ
बीती कहानियां गढ़ता-कहता हूँ।
मैंने देखी है अमीरी-गरीबी के दिन
दुख-सुख की दुनियां भी देखी है।
देख रहा हूँ मैं दुर्दिन भी अब
सीधे सादे लोगों की टोली देखी है।। मैं पोस्ट..
मैं खत के बीते आंखर को,
अपनी जुबानी रखता हूँ।
मैं आने-जाने वालों की
खबरों को समेटे रखता हूँ।
मैं चौराहे में हर हरकत पर,
ख़ूब नज़र गढ़ाए रहता हूँ।
मैं हूँ! पोस्ट ऑफिस का डिब्बा,
मुझे जाने कैसे सब भूल गए।
मैंने देखी हैं सदियां कितनी,
मुझे दिल से लगाना भूल गए।