“क्या करे बिटिया” – अंकित तिवारी “अंकू” की स्वरचित कविता

क्या करे बिटिया इस ताजमहल के आंगन का
क्या करे बिटिया इस खुले आसमान का
क्या करे बिटिया इस जगमगाती रातो का
उस बिटिया का तो गहना लूट के इन दरिंदो ने ।
ना अब जीने की चाह रही जीती भी कैसे उस परिंदे के पर काट लिए इन जिस्म के दरिंदो ने ।।
घर से निकली थी भोर भारी सवेरे में
सोचा था कुछ दुनिया घूमेगी उस परिंदे ने
पंख तो थे मगर पंख काट लिए दुनिया के दरिंदो ने
मा बाप की दुलारी थी और घर म सबकी पयारी थी
बड़ी लाडो ने पाला था
मा बाप की जीवन कि अन्मित कहानी थी
हौसले उसके भी थे वो उड़ाना चाहती थी ।
चली थी वो भी पहले ये सोचा था शायद खुले आसमान में पंख फेला कर दूर उड़ान भरेगी
लेकिन दर्द इतना था वो सांस भी ना ले सकी ।
उसकी दर्द से दर्द हर एक मा को था एक भाई को था
मगर लोकतंत्र का चोला दिलाएंगे हम न्याय पब्लिसिटी किसी और को करवानी थी ।।
हर पल उस वक़्त जब निचोड़ा जा रहा था उसके जिस्म को
सोच के भी रूह कापती है हर एक इंसान की
सजाए मौत नहीं ,मौत को भी शर्म आ जाए ऐसी कुछ सजा हो
बलात्कारी ना दूसरा कोई पैदा हो ।
ऐसा क्या कसूर था उस नादान परिंदे का वो भी सिर्फ उड़ना चाहती थी ।।

अंकित तिवारी “अंकु”