बहुत समय से उच्च हिमालय की दानवीर महिला स्वर्गीय जसूली देवी शौकयानी जी और उनकी बिखरी धरोहरों को देख पीड़ा होती थी। जब भी उन बिखरी हुई धर्मशालाओं को देखता था तो पीड़ा नहीं निकल पाती थी। आज मन के शब्दों ने ये रूप लिए। उनके प्रपोत्र नरेंद्र दताल जी के अनुरोध पर जसूली आमा को ही समर्पित यह कविता।
“मैं जसूली देवी हूँ!”
व्यान्स, चौंदास और दारमा के बीच
सुरम्य घाटियों को..
हवा-पानी को
नौल से डबडबाये धारों को
और
हरे भरे खेत ख़ालियानों को
देती हूँ आवाज़।
उन दांगतु की पथरीली
पगडंडियों को भी,
जिनसे किया था शुरू
दुरूह जिंदगी का सफर।
जहां मैंने जिया-भोगा और
सब समर्पित किया
अपनी ही थात को
बचाये रखने के लिए!
मैंने तपाई थी देह,
पकाए थे बाल भी
दशकों तक रूड़ के घाम में।
झेली थी हाड़ कंपकँपाती हुई
सर्दी भी।
मैंने खाई थी हजारों ठोकरें
उन पथरीले बाट-घाट में।
फिर भी मोह नहीं छूटा मेरा
उस हिमगाँव दांगतु से….
मैंने हिमालय से भाबर तक
बिछाई हैं सैकड़ों स्मृतियाँ।
धर्म की शालाओं में
सैकड़ों अनकही बातें भी।
मैं जसूली देवी हूँ!
मेरे भीतर समाई हैं
कई बीती-अनकही बातें!
मुझे खोजना तुम भी
इन बिखरी हुई निशानियों में।
©डॉ. ललित योगी