एक यात्रा काफी पहले लिखी थी आज किताबो के बीच मिली
किताबो की तह में कही छुपी
शब्द शायद वर्चस्ववादी ना हो पर पर कोसिस है कि मर्म अच्छा लगेगा।
“एक मुकम्मल यात्रा का वादा था तुमसे
तुमने कहा था की बसन्त जब लौटने लगेगा
तब अंतिम फुहार के साथ यात्रा शुरू करँगे
उस घाटी की
एक रहस्य की खोज में उन पुरखो से मिलने
जिनकी रूहें घाटी में फूल बनकर फिर से जी उठती है।
मैं मीलों दूर तुमसे बसन्त की पहली बूंदों का इंतज़ार
करता अक्सर छत से घिरते बादलों को निहारता रहता हूँ
इस उम्मीद से की जब ये लौटेंगे तब
तुम्हारे पसन्द की चीज़ों के साथ।
मैं तुमसे मिलने आऊंगा।
अब मेरे ख्वाबो के झरोखों में
हर सम्त तुम्हरा जिक्र शामिल रहता है।
और मेरी हर सहर को गरजते बादलों का इंतज़ार
उस रोज जब घिरते बादलों से टपकी
बंसत की उस पहली बूंद को चूमा था
मन स्वप्नफल की आशा में किसी धुन पर नाच उठा
बस चंद बूंदे और फिर वो मुक्कमल सफर का वादा
साथ लिए मैं और तुम साथ चलेंगे।
इन बूंदों को कुछ रोज और बरसना है
और फिर लौट जाना है
जैसा हर साल होता है वैसा ही होना था।
मगर इस दफ़ा ये अपने साथ लायी थी एक जलजला
एक जलजला जो निगल गया तुम्हारे गाँव को
एक जलजला जो ढक गया तमाम ख्वाहिशो को
तमाम खेतो को, नई कोपलों को
मिमियाते मेमनों को,
मिट्टी के ढेरो को खोदा हमनें छतों को ढूंढने के लिए
टूटी छते मिली और उनमें कुचली हुवी कुमल की झूले मिली
टूटे खिलौने मिले, और चिलम में भरे बुझे कोयले मिले
कटे हाथ मिले, कुचले सिर मिले
और साथ में मिली तुम्हारी वो नीली फ्रंट सिल्ट वाली ए लाइन कुर्ती
मगर तुम कही नही मिली
तुम ठीक हो मैं जानता हूँ
और ये भी की तुम कहाँ हो।
मैं बसन्त की अंतिम फुहार के साथ
चला तुम्हारे पीछे पीछे
उस घाटी में मैं तुमसे मिला
मुझे यकीन था तुम यही मिलोगी
तुम हवाओ के साथ लहरा रही थी
हज़ारो पुरखो के बीच
तुम महक रही थी।
एक फूल बनकर।
तुम कितनी खूबसूरत हो।
इस नीले रंग में ठीक वैसी ही जैसे उस कुर्ती में।
तुम्हारे लबो से अक्सर सुने
वो मशहूर शब्द की ” मृत्यु शुरवात है एक नए सफर का”
मुझे कई खूबसूरत रातो में बैचैन कर देते है।
अब जब आसमाँ में बादल घिरते है
तो घिरने लगती है निराशाएं
और पहली बूंद के साथ मैं भी बरसता हूँ
अंतिम फुहार तक
फिर सफर शुरू करता हूँ तुमसे मिलने का
तुम तो जानती हो
मैं आऊंगा हर साल
तुम बस खिलते रहना।”
“दुःखद व्यथा जो हर पल जंवा रहती है
सोख लेती है आंखों में आँसुओ को
और भर देती है बंजर नीरसता,
कितना दुःखद भाग्य है इस व्यथा का
जिसके हिस्से में आँशु तक नही है।”
-सुनील कालाकोटी