——————————————————-
हमने बचपन से मुहब्बत का सफ़र बाँधा है ll
शाख पे घोंसला औऱ रेत पे घर बाँधा है ll
—————————————————-
जीने के जोश ने हर यास के पत्थर काटे ll
ख़्वाब बुन – बुन के बुलंदी का हुनर बाँधा है ll
—————————————————-
वो जो कल आके जलाने लगे महफ़िल में चराग़ ll
आ के बतलायें की उजालो को किधर बाँधा है ll
——————————————————
जिनकी आँखों में है शौहरत की परी के सपने ll
उनकी चाहत ने बस अंधो का शहर बाँधा है ll
—————————————————-
राह तो कोई भी मंज़िल की ग़ुलामी में नहीं ll
उम्र की चाह ने दिलदार असर बाँधा है ll
——————————————————
दिये – दिये से जुड़े तब हुआ उजाला अमर ll
इसी बुलंदी ने तो शम्स – ओ – कमर बाँधा है ll
——————————————————-
कारवां लेकर चला अपनी डगर पे बादल ll
ग़ज़ल बरसात की सावन का पहर बाँधा है ll
——————————————————
——–©® विवेक ‘बादल’ बाज़पुरी