सतीश के पिता इंदौर पटेल चौक पर जूता सिलने का काम किया करते थे, और दिन भर कड़ी मेहनत करने के बाद भी शाम को जब सपनों के उस बक्से को टटोलते तो मुनाफे के रूप में बच पाते थे सिर्फ़ 60 या 70 रुपये, इसी आजीविका से सतीश के पिता अपना जीवन खर्च चलाया करते। अब सतीश के पिता की शादी को भी 2 वर्ष पूर्ण हो गए थे, और एक विवाहित दम्पत्ति से अक्सर पूछा जाने वाला वो सवाल अब जल्द ही जवाब की शक्ल लेने वाला था, यानि ये वक़्त था घर मे नये मेहमान के रूप में सतीश के आगमन का, यूँ तो ये पल हर परिवार के लिए एक ख़ुशियों भरा पल होता है पर शायद एक पिता के लिए ये खुशी भरे पल के साथ-साथ नयी जिम्मेदारियों की शुरुआत का समय भी होता है।
एक रात सतीश के पिता अपनी दुकान बंद कर घर लौटे ही थे कि सतीश की मां की तबियत अचानक से बिगड़ने लगी, वे उन्हें तुरंत पास के एक अस्पताल में ले गये। जहाँ पहुँचने के काफ़ी देर बाद डॉ ने सतीश के पिता को बताया कि आपके घर मे बेटे का जन्म हुआ है। परिवार के सभी लोग तो सामाजिकता को परम ज्ञान मानते हुए पुत्र प्राप्ति की ख़ुशियों में डूब गये। और हाँ ऐसा नहीं था कि सतीश के पिता अपनी इस सामाजिक पदोन्नति पर ख़ुश नहीं थे, यक़ीनन खुश तो सतीश के पिताजी भी थे पर उनके मन मे अब सतीश की बेहतर परवरिश को लेकर चिन्ता के बादल भी मंडरा रहे थे, और एक पिता के लिए ये स्वाभाविक था। तो इस बात को अपनी ताक़त का आधार मानते हुए वो आश्वश्त हो रहे थे कि चलो इतनी तो इतने सालों में जमा पूंजी है ही जो सतीश की कुछ सालों की परवरिश कर सकती है। जिस प्रकार से माँ बनने के तुरंत बाद माँ के लिए डाँ० की सलाह पर शारीरिक श्रम को कम किया जाता है, उसी प्रकार पिता के लिए सामाजिकता की तर्ज़ पर शारीरिक श्रम को बढ़ाने की सलाह दी जाती है, और उसी सलाह को मानते हुए अब सतीश के पिता भी और अधिक मेहनत से दिन के साथ-साथ रात में भी काम करने लगे थे।
पटेल चौक मुख्य बाजार के पास में था तो रात को भी कभी कबार कुछ लोग आ जाया करते और सतीश के पिता इसी आशा में देर रात तक बैठे रहते कि शायद आज 20-30 रुपये का ज्यादा मुनाफा हो जाये तो वो सतीश के लिए कुछ नए खिलौने ले जा सकें, सतीश के पिता के मन में शायद एक बात डर भर रही थी कि एक पुत्र अपने पिता की परछायी बनने की कोशिश करता है, और यही तो वो नहीं चाहते थे, क्यूँकि वो सतीश के हाथों में फ़ैसले लेने की उस ताक़त को देखना चाहते थे न कि अपनी तरह यूँ जूते सिलते देखना चाहते थे। पर उसे ये सब एक बेहतर भविष्य के साथ ही मिल सकता था, इसी कारण उन्होंने सतीश की माँ को कहा था कि वो सतीश को उनके काम के बारे में कुछ न बताए। पर अब सतीश बड़ा हो रहा था और आस-पास खेलने जाया करता तो सभी के साथ रहने से अब उसके मन मे भी अनेकों प्रश्न उमड़ने लगे थे। और फिर आखिरकार सतीश ने एक दिन अपने मन मे चल रहे प्रश्नों को माँ से पूछ ही लिया, कि उसके पिता क्या काम करते हैं? वो इतनी सुबह घर से क्यों चले जाया करते हैं औऱ देर रात होने पर भी घर क्यों नहीं लौटते? सतीश अपने पिता से पूरे दिन भर में मुश्किल से 5 मिनट ही मिल पाता था, क्योंकि जब पिताजी रात को लौटते तो सतीश अपने छोटे से सपनों को संजोये सोया रहता और सुबह सतीश के उठने तक पिता के क़दम कर्तव्यपथ पर निकल जाया करते थे। तो इन स्थितियों में बाल मन में सवालों की इन लहरों का उफान भी स्वाभाविक था। माँ ने सतीश के प्रश्नो को उलझाने की असफल कोशिश की पर सतीश अपने प्रश्नो में अडिग रहा, आखिरकार माँ ने सतीश को जवाब दिया कि तुम्हारे पिता एक बड़े ऑफिस में काम किया करते हैं। सतीश के पिता की दुकान के पास ही एक किराये के कपड़े की दुकान थी जहां से वो 2-4 जोड़ी किराये में कपड़े लेकर उसे दुकान को आते और जाते समय पहना करते जिससे कि सतीश को सच में ये लगे उसके पिता एक बडे ऑफिस में काम करते हैं दुकान पहुंचकर वो अपने कपड़े बदल लिया करते थे।
अब सतीश की उम्र 7 वर्ष हो चुकी थी तो पिताजी ने सतीश का स्कूल में दाखिला कराने का निर्णय लिया, उनका सपना था कि वो तो अनपढ़ रह गए पर वो सतीश को पढ़ा लिखाकर एक बढ़ा अफसर बनायेंगे। अब सतीश भी स्कूल जाने लगा था, एक दिन स्कूल में अध्यापिका द्वारा सभी बच्चों से उनके बारे में पूछा गया। क्योंकि सतीश का स्कूल एक पब्लिक स्कूल था तो वहां लगभग आर्थिक रूप से अच्छे परिवार के बच्चे ही पढ़ा करते, सभी बच्चों ने अपने बारे में परिचय देना शुरू किया। अब जब सतीश की बारी आई तो उसने भी अध्यापिका को वही बताया जो सतीश की मां ने सतीश को बताया था कि तुम्हारे पिता बड़े से आफिस में काम करते हैं, इधर सतीश के पिता भी ख़ूब मेहनत से काम करते और वहाँ माँ घर संभाला करती व सतीश स्कूल जाया करता पर एक दिन तेज बारिश के दौरान सतीश की अंग्रेजी की अध्यापिका की सेंडल स्कूल से घर जाते वक्त टूट गयी, तो अध्यापिका स्कूल से ही ऑटो में बैठ घर के लिए निकल गयी, इसी रास्ते मे पटेल चौक भी पड़ता था, जहाँ सतीश के पिता मोची का काम किया करते थे।इसलिए वह वहाँ अपना सेंडल ठीक करवाने के लिए रुकी, सतीश के पिता अपने काम मे लगे हए थे पर जब उन्होंने मैडम के रूप में उस ग्राहक की आवाज़ सुनी तो कहा- हां बताइए, क्या काम करना है, इसी दौरान सतीश के पिता ने ऊपर की तरफ देखा तो उस समय दोनों एक दूसरे को देख चौंक गए। अध्यापिका ने कहा आप सतीश के पिता जी हैं ना जो उस दिन एडमिशन के लिए आये थे, तो आप एक मोची हैं और वो हसने लगी। सतीश के पिता ने मैडम के सामने हाथ जोड़ लिए औऱ कहा कृपया कर इस बात के बारे में सतीश को मत बताइएगा, मैडम हाँ ठीक है कहकर वहां से चले गयी।
एक ग़रीब की मजबूरी और दिखावटी समाज के बीच हुई उस मुलाक़ात को अब कुछ समय हो चुका था। और अब कुछ दिन बाद विद्यालय में पेरेंट्स टीचर मीटिंग थी, जिसमें सतीश को छोड़ सभी बच्चों के माता-पिता आये थे,अगले दिन प्रधानाचार्या ने सतीश को उसके माता पिता के मीटिंग में नहीं आने का कारण पूछा तो सतीश ने बताया कि उसके पिता बड़े से आफिस में काम करते हैं, शायद इस वजह से वो व्यस्त रहे होंगें। इतने में दूर खड़ी अंग्रेजी की अध्यापिका जोर-जोर से हँसने लगी प्रधानाचार्या ने अध्यापिका से हँसी का कारण पूछा तो उन्होंने कहा- अब इस पब्लिक स्कूल में मोची के बच्चे भी पढ़ने लग गए क्या! और फिर अध्यापिका ने सतीश को पूरी प्रार्थना सभा में कहा कि तुम्हारे पिता कोई बड़े से ऑफिस में काम नहीं करते वो एक मोची हैं, जूता सीलने वाले मोची। ये सुन स्कूल के सभी बच्चे व अध्यापक हँसने लगे, सतीश को ये सब सुन व देख बहुत दुख हुआ पर उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसकी माँ उससे कैसे झूठ बोल सकती है। वो रोते-रोते घर पहुँचा और माँ को स्कूल में हुए प्रकरण के बारे में बताने लगा, अब माँ ने भी आखिरकार सतीश को सच बता ही दिया कि “हाँ तुम्हारे पिता जूता सिलने का काम करते हैं”। अब वो बाल मन टूट सा गया था, शायद इसी लिए सतीश स्कूल जाने को तैयार नहीं था। पर माता पिता ने उसे खूब समझाया, जिसके बाद वो स्कूल जाने को तैयार हुआ, पर अब तक ये बात पूरे स्कूल में फैल चुकी थी। सब रोज़ उसकी मज़ाक उड़ाते खिल्लियां उड़ाते उसे मोची-मोची कहकर चिढ़ाने लगते, अब वो ये सब से हार चुका था।
अतः अब उसने फैसला किया कि वो स्कूल नहीं जाएगा, और इस बार उसके पिता ने भी उसकी बात में हांमी भर दी क्योंकि अब उसके पिता भी सतीश को ऐसे हाल में नहीं देख सकते थे। आज सतीश के पिता ने उसके स्कूल न जाने की बात में हाँमी तो भर दी थी पर शायद आज अगर सबसे ज्यादा कोई टूटा था तो वो सतीश के पिता ही थे। क्योंकि आज सिर्फ वही नहीं टूटे थे बल्कि उनका अपने बेटे को अफ़सर बनाने का सपना भी टूट गया था। अब सतीश भी अपने पिता के साथ दुकान पर जाता व जूता सिलना सीखता… पिता ने उसे घर पर ही कुछ किताबें लाकर दी औऱ उन्हें पढ़ने को कहा, ताकि सतीश भले ही कोई बड़ा अफसर न बन पाए पर अपने बाप की तरफ अनपढ़ ना रहे। अब सतीश की उम्र 15 वर्ष हो गयी थी। सतीश ने स्कूल तो उसी दिन छोड़ दिया था, पर पिता की लायी हुई किताबों को पढ़ कर उसे थोड़ा बहुत ज्ञान हो ही गया था। अब एक दिन सतीश के पिता दुकान पर नहीं थे तो दुकान में एक सज्जन व्यक्ति अपना जूता सिलवाने के लिए आये, सतीश ने उस सज्जन व्यक्ति से जूता सीलने के दौरान ही कुछ ऐसी बड़ी-बड़ी और अच्छी-अच्छी बातें की जो उस सज्जन व्यक्ति को घर कर गयी, सज्जन व्यक्ति ने पूछा तुम यहाँ बैठे-बैठे इतना सब कैसे जानते हो, तुम कौन सी क्लास में पढ़ते हो! सतीश ने उस सज्जन व्यक्ति को अपने बारे में बताया कि उसे किस तरह से स्कूल को छोड़ना पड़ा व उसके पिता की लाई हुई किताबों से ही वो घर मे पढ़ा करता।
इसी दौरान सतीश के पिता भी दुकान में आ गए, उस सज्जन व्यक्ति ने सतीश के पिता को सतीश का प्राइवेट से दसवीं में दाखिला करवाने को कहा तो पिता जी भी राजी हो गए। इस तरह प्राइवेट से ही सतीश ने दसवीं व बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। वो सज्जन व्यक्ति लगातार इस दौरान अक्सर सतीश व उसके पिता से मिला करते, अब उस व्यक्ति ने सतीश को आईएएस ऑफिसर की तैयारी करने को कहा, ये सुन सतीश के पिता की आंखों में आँसू थे। क्योंकि आज उन्हें एक बार फिर ऐसा लग रहा था जैसे उनके द्वारा बेटे को बड़ा अफसर बनाने के सपने में किसी ने आकर फिर से जान डाल दी हो। वो भीगी आँखों से बस इतना ही कह पाए, कि आज भगवान ख़ुद चलकर उसका हाथ थामने आए हैं।
अब वो सज्जन व्यक्ति सतीश को तैयारियों के लिए अच्छी अच्छी किताबे देकर जाते, तो कभी खुद ही सतीश को उसी दुकान में बैठे-बैठे पढ़ाने लगते। अब एक दिन सतीश दुकान में जूता सील रहा था, तो बगल की दुकान में लटकते हुए अखबार में उसने उस सज्जन व्यक्ति की फ़ोटो को देखा जब उसने उस फ़ोटो के नीचे लिखे समाचार को पढ़ा तो उसे पता चला ये सज्जन व्यक्ति और कोई नहीं बल्कि उस जिले का आईएएस ऑफिसर हैं। ये सब देख सतीश व उसके पिता अब बहुत खुश थे। पिता को तो मानो ऐसा लग रहा था जैसे यह व्यक्ति उनके सपनों को पूरा करने ही आया है।
और आख़िरकार सतीश की आईएएस परीक्षा देने का वक्त भी आ गया, सतीश ने पूरे कर्मयोग से परीक्षा दी। पर सतीश का जब परीक्षाफल आया तो वह कुछ अंको से रह गया। पर आज कोई भी इससे मायूस नहीं था, बल्कि सभी को ये विश्वास हो चुका था कि सतीश एक दिन जरूर आईएएस आफिसर बनेगा औऱ शायद वक्त को भी ये ही मंजूर था। सतीश ने जब दूसरी बार आईएएस परीक्षा दी तो उसने टॉप रैंक के साथ परीक्षा को उत्तीर्ण कर लिया। पिता को जब इस बारे में पता लगा तो बस आँख में आँसू थे क्योंकि आज उनका सपना जो पूरा हो गया था। उन्होंने उस सज्जन व्यक्ति के पैर पकड़ लिए और फिर उन्हें गले लगाकर रोने लगे, वो सज्जन व्यक्ति ने कहा रुकिए अभी एक लड़ाई और बाकी है, इस समाज में हक़ की लड़ाई। अब हुआ यूँ कि उस सज्जन व्यक्ति व आईएएस आफिसर को कुछ दिन बाद उसी पब्लिक स्कूल में बतौर चीफ गेस्ट बुलाया गया। ये वही जगह थी जहाँ से सतीश को स्कूल छोड़ना पड़ा था। उन्होंने इस कार्यक्रम में सतीश व उसके पिता को चलने को कहा, दिलों में कुछ संकोच और उससे अधिक संतोष के साथ सतीश और उसके पिता चलने को राज़ी हो गये। सज्जन व्यक्ति ने स्कूल के कार्यक्रम में बताया कि ये मेरे साथ जो हैं ये इस बार की आईएएस परीक्षा में टॉप रैंक के आईएएस ऑफिसर हैं। ये सुन सभी सतीश व उसके पिता के साथ सेल्फी लेने लगे। उस सज्जन व्यक्ति ने कहा रुकिए ज़रा पूरी बात सुनिये, उनका इशारा उस अंग्रेजी की अध्यापिका की ओर था। जो अब प्रधानाचार्या बन चुकी थी उन्होंने कहा ये वही सतीश हैं जिनके पिता जूता सीलने का काम करते हैं। जिनके काम को लेकर आपके द्वारा इसी स्कूल में सतीश की ख़ूब खिल्लियां उड़ाई गयी थी। ये सुनकर सभी खामोश थे, जैसे सबके मुँह पर ताला लग गया हो। वाकई में आज सतीश की सफलता ने एक ताला तो जड़ा था। और जिसकी चाबी आज सिर्फ सतीश के हाथों में थी। अब उस सज्जन व्यक्ति ने सतीश को मंच पर बुलाया, मंच पर आकर सतीश ने कहा मैं कुछ नहीं कहना चाहता, बस अपनी इस विद्यालय की प्राधानाचार्या और उन लोगो का धन्यवाद देना चाहता हूं जिन्होंने उस दिन मेरा मजाक उड़ा मुझे स्कूल छोड़ने पर मजबूर किया। आज अगर मैं कुछ बन पाया हूँ तो उसमें आप लोगों का बहुत बड़ा हाथ है। अब सतीश ने स्कूल के बच्चों को कहा मैं आपको एक उपहार देना चाहता हूँ, सतीश ने कहा कि इस विद्यालय में जिन जिन बच्चों के जूते फटे हुए हैं वो आगे आ जाए, मैं आप सभी के जूते सिलूँगा। अब कई बच्चे आगे आ गए सतीश व उसके पिता ने उन बच्चों के जूते सीलने शुरू किये तो उस जिले के आईएएस आफिसर यानि वही सज्जन व्यक्ति, वो भी जूता सीलने लगे। उनका कहना था कि मैं तुम्हे इतने सालों से देख इतना तो सीख ही गया हूँ कि जूते में पट्टी लगा सकूँ। तीनो की ये जूता सीलने की तस्वीर अगले दिन समाचार पत्र के प्रथम पृष्ठ पर सतीश की सफलता की कहानी के साथ छपी थी। इस सफलता की कहानी को पढ़ न जाने कितने लोगों को लड़ने का हौंसला मिला हो, ये तो संघर्ष के समंदर में तैरते और कई बार डूबने की डर को नज़दीक से देखते वो सभी दिल जान सकते थे जिन्हें ये कहानी किसी तिनके के सहारे से कम नहीं लग रही थी। जिसकी क़ीमत सही मायनों में कोई डूबता ही समझ सकता है।
वाकई में इस कहानी में कोई एक हीरो नहीं था बल्कि तीन-तीन हीरो थे। पहला सतीश खुद जिसने कम संसाधनों के बावजूद भी अपनी मेहनत से इतनी सफलता प्राप्त की, दूसरा शख़्स सतीश का पिता, जिसने अपने जीवन को सतीश के बचपन और उसकी जिम्मेदारियों के लिए सर्वस्व अर्पण कर दिया और तीसरे उस जिले के आईएएस ऑफिसर जिन्होनें वाकई में एक जिले के प्रथम व्यक्ति के रूप में अपनी जिम्मेदारी को बख़ूबी निभाया।
Socialvoice आशीष पन्त “कॉमरेड”
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