“इन दिनों का दर्द” – डॉ ललित जोशी “योगी” की स्वरचित कविता

“इन दिनों का दर्द”

मैं भारी पीड़ा को
अक्सर छुपा लिया क़रतीं हूँ
जब मेरा महीना नजदीक
आता है।
तब
मेरे पेट की आंतें,
खिंचने लगती हैं
और पेट की नसों में
जैसे उबाल आ रहा हो।

ऐसा दर्द-
जैसे फ़ट रही हो धरती!
दुःखने लगते हैं पेढू भी
तब दर्द से कराहती हूँ,
भीतर ही भीतर
क्या करूँ-
मैं छुपा लेती हूँ पीड़ा को
अनकही मुस्कान के भीतर।

पहाड़ में अक्सर इन दिनों को
छूत कहते हैं।
और शहरों में इसे कहते हैं-
पीरियड!

भयानक सड़कते हुए दर्द से
उदास हो जाता है-मन भी,
चमकता दीप्त चेहरा भी
पड़ जाता है मलीन
मेरा उत्साह पड़ जाता है
ग्लेशियर सा ठंडा।

इस दर्द से आंखें भी
चली जाती हैं गर्त में।
निस्तेज हो जाता है-
यह मुखमंडल भी।

भरे दर्द में
अपने गले को तरावट देने के लिए
पी लेती हूँ फीकी चाय
गांव-घरों में इन दिनों में भी
भीषण गर्मी में झुलसकर
खोदती हूँ खेत
समेटती हूं असौज
काटती हूँ घास
ढोती हूँ जंगलों से बिछाली
सिर पर बोझा रख
जाती हूँ दूर खेतों की तरफ।

कभी-कभी
खोदने पड़ते हैं खेत मुझे
भूखे-प्यासे ही कई घंटों
करना पड़ता है काम।
फिर भी झेलती हूँ
इन दिनों और
इन दिनों की पीड़ा को।

यूं ही हर महीने,
झेलने पड़ते हैं दर्द!
सहन करने पड़ते हैं
इन दिनों के दर्द।
इस उठे दर्द से
अक्सर चल भी नहीं पाती मैं!
चकराता है सिर भी
फिर भी धूप में सिर छुपाकर
निकलती हूँ काम करने।

मैं भरे दर्द में भी सुबह उठ
रोज की गृहस्थी जमाती हूँ,
सफाई कर निकल पड़ती हूँ
ऑफिस के कामकाज निपटाने।
छुपाती हूँ सबसे अपने को
कि कहीं कोई देख न ले
मुझे और मेरे मासिक धर्म को।

शर्म-लाज से खुद को बचाने,
जाती हूँ कई दफा ऑफिस के
महिला प्रसाधन में।
ये कहकर कि आज
सही नहीं है तबियत।
घर आकर अनमने मन से
जुट जाती हूँ काम में
कभी खुद से कहती हूँ,
यह सृष्टि है
यह मासिक धर्म नहीं!
यह प्रकृति है।
उड़ीसा में यह उत्सव है

मुझसे ही है यह प्रकृति
और यह है-
इस शून्य जगत का आधार है,
जिससे जन्मते हैं-
मानव और ये मानव जाति।

यह मासिक धर्म नहीं!
यह है प्रकृति का धर्म,
जो निभा रही हूँ मैं!
युगों से ..निरन्तर इसी तरह..

(अनकही स्मृतियाँ) डॉ ललित जोशी