REVIEW: ‘मैरी क्रिसमस’ फिल्म पर डॉ. पुरन जोशी द्वारा की गई समीक्षा, देखें

रात जितनी संगीन होगी सुबह उतनी रंगीन होगी। सीधे – सीधे कहें तो घनी अँधेरी रात के बाद उजली सुबह का आना तय है। हालिया देखी फ़िल्मों में ‘मैरी क्रिसमस’ फ़िल्म यही संदेश देती है। फ़िल्म में एक माँ है जो अपनी बेटी के साथ रेस्टोरेंट में बैठी है। फ़िल्म का एक और अहम किरदार है जिसने हाल में अपनी माँ को खोया है और करीब सात साल के बाद अपने शहर लौटा है। क्रिसमस की पूर्व संध्या है और पूरा शहर आनंद में है। लेकिन सबके लिए वक़्त एक जैसा कहाँ रहता है? उन दोनों के लिए दुनिया कैसी है? ये शाम कैसी है?

फ़िल्म श्रीराम राघवन के द्वारा निर्देशित है। सर्वविदित है कि राघवन थ्रिलर फ़िल्मों के निर्देशन में बेजोड़ हैं। एक हसीना थी, अंधाधुन, बदलापुर जैसी फिल्में इसकी बानगी हैं। ‘मैरी क्रिसमस’ भी थ्रिलर है लेकिन एकदम अलहदा कथानक पर बनी। फ़िल्म फ्रेडरिक डार्ड के फ्रेंच नोवेल ले – मोंते चार्ज (bird in cage) पर आधारित है। फ़िल्म के पोस्टर को अगर ध्यान से देखें तो एक पिंजरे से एक चिड़िया को उड़ता हुआ दिखाया गया है। ये कौन आज़ाद हो रहा है? किससे आज़ाद हो रहा है? जवाब फ़िल्म देखकर मिलेगा।

फ़िल्म का सेट अप अस्सी- नब्बे के दशकों का बंबई शहर है। जब मोबाइल फोन नहीं थे। बंबई की काली – पीली टैक्सियां, पुराने घरों, रात की सुनसान सड़कों को देखना एक अलग अनुभव को जीने जैसा है। फ़िल्म का पोस्टर भी गुज़रे ज़माने की याद दिलाता है।

फ़िल्म की कहानी नायक के घर लौटने से शुरू होती है जहाँ उसका पड़ोसी उसे उसकी माँ के अंतिम दिनों के बारे में बताता है और अपने घर खाने पर आमन्त्रित भी करता है। नायक कुछ देर बाहर घूमने निकलता है। रेस्टोरेंट में जाता है और वॉशरूम इस्तेमाल करने के लिये जैसे ही जाता है एक आदमी उसको बताता है कि सामने की कुर्सी पर जो औरत बच्ची के साथ बैठी है उसको बता दो कि मैं चला गया। ये कहकर वो आदमी एकदम बाहर चला जाता है। नायक उस औरत को बात बता देता है। साथ ही कुछ और बातचीत भी करता है।

बातों – बातों में दोनों उस महिला के घर तक आते हैं। मारिया अपनी मूक बेटी और ड्रग ऐडिक्ट् पति के साथ बड़ी संकट वाली ज़िंदगी जी रही है। नायक अल्बर्ट बताता है कि वो अपनी गर्लफ्रेंड के कत्ल की सजा के सात साल काट कर लौटा है। इस तरह दोनों की ज़िंदगियों की दुःख भरी दास्तान उनको एक जैसे मानवीय धरातल पर साथ खड़ा कर देती है। कभी – कभी लोगों के जीवनों की दुःख भरी कहानियाँ उनको एकदम अंजान होकर भी बिल्कुल करीब ला देती हैं। इस बीच फ़िल्म में रोचक मोड़ आता है जब मारिया के नशेड़ी पति का खून हो जाता है। यहाँ संजय कपूर भी फ़िल्म में एक अहम रोल में नज़र आते हैं।

फ़िल्म दर्शकों को शुरू से आखिर तक बाँधे रखती है। राघवन की कुछ अन्य फ़िल्मों की तरह महिला की केंद्रीय भूमिका जो कभी – कभी ग्रे शेड लिये हुए भी होती है, इसे पूरी तरह राघवन की फ़िल्म बना देती है।कैटरीना और विजय सेथुपति का अभिनय दमदार है। सेथुपति की संवाद अदायगी गौर करने लायक है। कैटरीना का काम अच्छा है। कैटरीना की कोई भी फ़िल्म देखता हूँ उनको अभिनय में एक कदम आगे पाता हूँ।

आख़िर लेकिन दीगर बात है कि क्रिसमस सबका मैरी हो ये ज़रूरी तो नहीं। लेकिन ये हो सकता है कि कुछ लोगों के कारण कुछ दूसरे लोगों का क्रिसमस खुशनुमा हो जाये। फ़िल्म यही संदेश भी देती है। अब सवाल उठता है यहाँ किसका क्रिसमस मैरी है और कौन खुशियाँ बाँट रहा है? इसको जानने के लिये फ़िल्म देखनी पड़ेगी।