महिला दिवस के अवसर पर कोमल की स्वरचित कविता

हाड़ मांस का एक पुतला नहीं ,

जीती जागती एक इंसान हूं मैं।

 

ममता करुणा से भरा है दिल मेरा,

त्याग समर्पण की पहचान हूं मैं।

 

न जाने कितने सपने हैं मन में मेरे,

क्योंकि जीती जागती एक इंसान हूं मैं।

 

बेटी, बहन, पत्नी बन मकान को घर बनाती हूं,

संघर्ष का दूजा नाम हूं मैं।

 

इरादे हैं मजबूत मेरे मगर देह है कोमल,

क्योंकि जीती जागती एक इंसान हूं मैं।

 

कभी सती कभी सीता बनकर अग्निपरीक्षा देती,

कभी दहेज की बलि चढ़ जाती हूँ मैं।

 

तुलसी सा पवित्र मन हैं मेरा, गंगा सी पावन हूं, 

क्योंकि जीती जागती एक इंसान हूं मैं।

– कोमल