“जलते जंगल” – पहाड़ों में गर्मियों के मौसम में जलते हुए जंगलों को देख युवा कवि मदन मोहन तिवारी “पथिक” द्वारा लिखी गई स्वरचित कविता

ये कैसा युद्ध है ये कैसा दंगल,

क्यों धूं धूं कर हैं जलते जंगल।

तपिश हृदय में है धरा झेलती।

किसकी खुशी है ये अमंगल।

धुंआ धुंआ हुई है पूरी धरती।

क्यों मानुष की आंख न भरती।

ये तो है जननी से भी बढ़कर ,

जो हम सबका जीवन तरती।

कौन हवा से है हाथ मिलाता,

सीने को इसके है दहलाता।

क्या कुछ नहीं दिया जंगल ने,

कौन इसको बेखौफ जलाता।

जब जब हैं ये जंगल जलते।

कितने बेजुबान हैं जिंदा जलते।

उनका घर भी है मानुष के जैसा,

बच्चे उनके भी हैं खूब उछलते।

कितनी सुंदर है धरा हमारी।

बचाना इसे सबकी जिम्मेदारी।

प्रण करो कि जंगल ना दहके,

मिलकर करो सब पहरेदारी।

– मदन मोहन तिवारी, पथिक