“पूर्णविराम !” – कोरोना संक्रमण पर समीक्षा उप्रेती की स्वरचित कविता

उस आरम्भिकस्थल पर लग तो
सकता था चिन्ह विराम का
परन्तु ज़हरीली शाखाओ से
मीठे फल के लालच ने
वसंत को पतझड़ में बदल डाला
पतझड़ की इस विषैली आंधी में जब बिखरा तिनका तिनका बेसहारा थाम कर हाथ फिर जन्मभूमि ने उसका छिपा लिया ममता के आँचल में दोबारा
गया था वर्षों पूर्व जिसको छोड़ अकेला
माथे में अहंकार की चमक लिए
था जो अपने सपने की ओर अग्रसर
आज उसी चमक को आँखों मे ग्लानि लिए लौटा हैं।
समय ने अपने चक्र को किया है प्रमाणित
प्रारम्भ से अंत होकर फिर हुआ है प्रारम्भ
होने लगे है साथ परिवारों के मशवरे
मगर लगाम थमी है डर के साये ने
घूमता अवश्य है चक्र समय का
मगर परिवर्धनो को साथ लिए।
धरती पर ईश्वर के फ़रिश्तो की निष्ठां झलकति है और कुछ उम्मीद की किरणे इन ज़हरीली शाखाओ को भेदती है
मगर फिर लग जाता है ग्रहण इन किरणों पर जब धर्म के आधार पर इंसानियत भी तरसती है।
अब तो सकारात्मकता और आशाओ के समंदर को लांगना ही सहारा है
जहा से मंजिल और गहराई अनिश्चित है
मगर डूबने न देने वाला विश्वास रूपी नाविक जीवित है।
समीक्षा उप्रेती…….✒️