बन्द हो जनप्रतिनिधियों की पेंशन-भत्ता योजना – गंगा सिंह बसेड़ा का यह लेख जरूर पढ़े

कोरोनावायरस के कारण संकट से खास तौर पर आर्थिक मोर्चे पर देश गंभीर समस्या से जूझ रहा है और दूसरी तरफ हम नेताओं को पेंशन व भत्ते के रूप में करोड़ों रुपए बांट रहे हैं। अपने पद से हटने पर सांसद या विधायक को जनता के पैसे से पेंशन देना संविधान के अनुच्छेद 14 समानता का अधिकार और अनुच्छेद 106 का उल्लंघन है।

एक तरफ ताउम्र देश सेवा करने वाले स्टेट पुलिस, पैरामिलिट्री फोर्स, शहीद होने वाले जवान व उसके परिवार, राजकीय सेवा में कार्यरत कर्मचारियों को 2004 के बाद पेंशन से वंचित रखा जाता है दूसरी तरफ जनप्रतिनिधियों को मनमाने ढंग से पेंशन बाटी जा रही है।

संसद को यह भी अधिकार नहीं है कि वह बिना कानून बनाए सांसदों को पेंशन सुविधा दें हम जानते हैं कि 82% सांसद करोड़पति हैं और गरीब करदाताओं के ऊपर सांसदों और उसके परिवार को पेंशन राशि देने का बोझ नहीं डालना चाहिए। खास तौर पर गौरवतलब है कि पूर्व में यह नियम था कि वही पूर्व सांसद पेंशन के योग्य माना जाएगा जिसने बतौर सांसद 4 साल का कार्यकाल पूरा कर लिया हो पर 2004 में कांग्रेस की सरकार ने इसे संशोधित करके यह प्रावधान किया कि यदि कोई 1 दिन के लिए भी सांसद बन जाएगा तो वह पेंशन का हकदार होगा और तब से 1 दिन का सांसद भी पेंशन का हकदार हो जाता है जिस देश में प्रति व्यक्ति आय ₹10534 से भी कम हो और जिस देश में आज भी बड़ी संख्या में लोगों को 2 जून की रोटी नसीब ना हो पाती हो उस देश की जनता के लिए जनता द्वारा चुने जाने वाले प्रतिनिधि ही किस तरह देश के संसाधनों का दुरुपयोग करने में व्यस्त हैं इसकी बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है कि एक सांसद यदि दोबारा सांसद निर्वाचित होता है तो उसकी पेंशन राशि में ₹2000 प्रति माह की और बढ़ोतरी कर दी जाती है और यही क्रम आगे चलता जाता है।

यदि कोई लोकसभा और राज्यसभा दोनों का सदस्य रह चुका है तो उसे दोहरी पेंशन यानी दोनों सदनों से मिलती है ऐसे ही यदि कोई विधायक व सांसद रहा हो तो उसे भी दो-दो पेंशन मिलती है। जनता की गाढ़ी कमाई को अब अपने उसके प्रतिनिधि खुद ही किस हद तक बंदरबांट करने का क्रम जारी रखे हैं यह कम दिलचस्प नहीं है। 1954 में लागू किए गए सांसदों के वेतन भत्ता एवं पेंशन अधिनियम में अब तक 29 बार मनमाने संशोधन किए जा चुके हैं मनमाना इसलिए कि जैसा संसद चाहते हैं स्वयं वैसा ही निर्णय लेते हैं दुनिया का शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहां सांसद अपने वेतन भत्ते पेंशन और सुविधाओं का स्वयं निर्णय लेते हैं। इससे पूर्व भी इसके विरुद्ध बहुत सारी आवाजें उठाई गई है किंतु हुए आवाजें दबा दी गई है निसंदेह यदि कोई आयोग होता तो शायद 2006 में पूर्व सांसदों को मिलने वाली पेंशन राशि 8000 से 2010 में बढ़कर 20000 तो नहीं हो पाती और फिर 2018 में बढ़कर 25000 तो कतई नहीं हो पाती।

इसमें गौर करने वाली बात यह है कि पूर्व सांसद तो आजीवन पेंशन व अन्य सुविधाएं भोगते ही हैं उनके स्वर्गारोहण के बाद भी उनकी पत्नी या पति भी आजीवन आधी राशि का उपयोग करते हैं।

बीते 8 वर्षों में यानी 2010 से लेकर 2019 तक पूर्व सांसदों को पेंशन के मत से कोई 500 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं इससे भी ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है कि पेंशन लेने वाले देश के करोड़पति अरबपति भी पीछे नहीं है और वे सभी मुश्किल से सदन में चार या पांच बार उपस्थित होने होते हैं ।

हां यहाँ तारीफ करनी होगी सचिन तेंदुलकर और लता मंगेशकर की जिन्होंने पेंशन लेने से मना कर दिया था। पेंशन लेने वालों में जेलों में बंद पूर्व माननीय भी शामिल हैं। हमारे देश में जनप्रतिनिधियों को दी जाने वाली पेंशन की व्यवस्था विचित्र है। पेंशन वरन जनप्रतिनिधियों के लिए वेतन भत्ते निर्धारण की प्रक्रिया भी अनूठी है सांसदों और विधायकों के संबंध में निर्णय लेने का अधिकार क्रमशः संसद और विधानसभा को दिया गया है दुनिया के अनेक देशों में जनप्रतिनिधियों को वेतन व अन्य सुविधाएं मिलती हैं परंतु उन्हें निर्धारित करने का अधिकार अन्य संस्थाओं को दिया जाता है ब्रिटेन में इसके लिए आयोग का गठन किया गया है ।

सांसदों और विधायकों के लिए पेंशन की व्यवस्था सार्वजनिक हित में नहीं ऐसा लगता है कि जनप्रतिनिधि अपने हित में सरकारी कोष का दुरुपयोग कर रहे हैं। कुछ पूर्व विधायकों और सांसदों को प्रधानमंत्री के वेतन से भी ज्यादा पेंशन मिल रही है ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि जितनी बार माननीय चुनकर आते हैं उतनी ही बार उनकी पेंशन में वृद्धि होती है दूसरी तरफ राजकीय सेवा में कार्यरत 2004 के बाद सभी कर्मचारियों को पेंशन नहीं मिलती इन सभी कर्मियों को नहीं पेंशन स्कीम में शामिल करके शेयर मार्केट बाजार व्यवस्था के अधीन कर दिया गया है। सबसे बड़ी बात यह है कि नई पेंशन स्कीम अगर सही होती तो विधायक सांसद को इसके दायरे में से बाहर क्यों रखा जाता। सरकार ने वेतन भोगी कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति पर पेंशन 2004 से यह कहते हुए बंद कर दिया कि उनका बहुत सरकार द्वारा वाहन करना असंभव है फिर जनप्रतिनिधियों को पेंशन क्यों मिल रही है।यहीं हाल राज्यों के विधानसभा और विधानपरिषद का भी है पेंशन के नाम पर अरबों जनता के पैसे बांटे जा रहे हैं और देश में मुसीबत आने पर दान सामान्य जनता से मांगा जाता है।

जब सामान्य जनता से गैस सब्सिडी तक छुड़ाया जा सकता है तो इन जनप्रतिनिधियों से पेंशन क्यों नहीं। इसके लिए जनता को जागरूक होना जरूरी है कि उनके पैसे का दुरुपयोग किस प्रकार से किया जा रहा है।लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भरोशा रखने वाले लोगों के विश्वास का गला घोंटा जा रहा है इसलिए सांसदों विधायकों की पेंशन बंद करके उन्हें भी नवीन पेंशन योजना के दायरे में लाकर देश की अर्थव्यवस्था के बोझ को कम करना चाहिए।