“रावण की पुकार” – दशहरे के अवसर पर यह व्यंग्य कविता

राजनीति से उलझी दुकान मे,

भारी भीड़ से भरे मैदान में
एक लम्बा काफिला आया,
लम्बी प्रतीक्षा के बाद
नेताजी ने धनुष उठाया!
पूरा ही मैदान खचाखच भरा था,
वो इसलिए क्योंकि आज दशहरा था!
भीड़ और काफिला जानलेवा बाढ जैसा था,
सामने रावण का पुतला लम्बे ताड़ जैसा था;
जयकारों के बीच अब समय आया
नेता जी ने बाण चलाया,
मगर,मगर एक दृश्य देख
भीड़ का सर चकराया!
आयोजक हैरान थे,चमचे परेशान थे,
ये कैसा चक्कर चल रहा है,
आखिर पुतला क्यों नहीं जल रहा है?
झूठा सा ताज तख़्ते में आ गया,
पूरा प्रशासन सख़्ते में आ गया,
तभी……..
तभी एकाएक पुतले से आवाज़ आयी,
अरे ये क्या कर रहे हो भाई?
ये कैसी नीतियों का जंजाल कर हो,
सरेआम खामखा बवाल कर रहे हो,
पाप के कोयले तो तुम सुलगा रहे हो,
सरेआम राम को झुठला रहे हो?
आज ये कैसा समय आ रहा है?
रावण को रावण ही जला रहा है?
देखो मैं कब से सबकुछ सह रहा हॅू,
अब हाथ जोड़कर सभी से कह रहा हॅूं,
चैन से मरना है अब आराम चाहिए,
इस भीड़ में मुझे एक राम चाहिए।

मनी नमन