उत्तराखंड में राजधानी के रूप में गैरसैण की उपेक्षा क्यों? गैरसैण गैर किले पहाड़ी प्रदेश की राजधानी पहाड़ बे भेर किले?

लेख – संजय पांडेय
आज जब सभी राज्यों की अपनी राजधानी हैं, सभी राज्य अपनी भाषा, संस्कृति के बचाव की कोशिश में है ऐसे में राज्य बनने के 20 वर्षों बाद भी पहाड़ी राज्य उत्तराखंड की राजधानी पहाड़ से बाहर क्यों है? आखिर क्यों यहां के राजनेताओं ने पहाड़ को और पहाड़ की शिक्षा व्यवस्था, पहाड़ के स्वास्थ्य व्यवस्था, रोजगार, पलायन, पहाड़ के विकास के मुद्दों को पीछे छोड़ आरामतलब ज़िन्दगी देहरादून में जा के कैसे गुजार सकते हैं जबकि पहाड़ के युवा बेरोजगार हैं, बेहतरीन शिक्षा से सुविधाओं से दूर, अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं से और कई मूलभूत सुविधाओं से आज भी वंचित हैं। राज्य निर्माण के समय गैरसैण को भविष्य की राजधानी बनाने की कल्पना हमारे राज्य आंदोलनकारियों द्वारा की गई थी परंतु उस समय वहां आधारभूत संरचना नहीं होने के कारण अस्थाई तौर पर देहरादून को राजधानी बनाया गया। लेकिन आज भी हमारा प्रदेश अपनी राजधानी के तरस रहा है।
राज्य के भूगोल और इतिहास की बात की जाए तो गैरसैण हमारे राज्य के केंद्र बिंदु पर स्थित है | राज्य आंदोलन की शुरुआत से ही गैरसैण राजधानी पर आम सहमति बनी हुई थी | उत्तराखंड क्रांति दल ने “चंद्रनगर “नाम से गैरसैण राजधानी का प्रस्ताव रखा , इसके साथ ही 1994 को अपनी रिपोर्ट में “कौशिक समिति ” ने गैरसैण राजधानी को उपयुक्त माना।
9 नवंबर 2000 को हमारा राज्य बन तो गया परंतु भविष्य की संभावनाओं को अपने साथ रखे हुए था जिसमें पहाड़ की विकास की बात थी परंतु राजनेताओं की उपेक्षा के कारण तथा तराई क्षेत्र से लगाव के कारण हमारे राज्य आंदोलनकारियों ने जिस राज्य की और राजधानी कल्पना की थी उसे अभी तक का अपना दर्जा नहीं मिल पाया है।
जनाक्रोश को देखते हुए नवंबर 2012 में तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने गैरसैंण में मंत्रिपरिषद की बैठक आयोजित की और विधानसभा भवन बनाने का निर्णय लिया। विधानसभा भवन भी बन गया और अब तो ग्रीष्म कालीन राजधानी भी उसे घोषित कर दिया गया परंतु गैरसैण उपेक्षा का दंश आज भी झेल रहा है।
आज की युवा पीढ़ी को इस मामले में जागरुक होकर सरकार और जनप्रतिनिधियों पर दबाव डालने की आवश्यकता है तभी कुछ किया जा सकता है। गैरसैण से ही पहाड़ के सतत विकास की यात्रा आरंभ होगी।